रक्षाबंधन: हर बहन अपनी रक्षा खुद कर सके
- संगीता रावत
(अतिथि प्राध्यापिका, gov. डिग्री कालेज कमांद, टिहरी गढ़वाल)
इस बार रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस एक ही दिन मनाया जाएगा। समाज और देश के लिहाज से दोनों पर्व विशेष हैं। इन दोनों पर्वों के प्रति महिलाओं का नजरिया आशावान रहता है। भाई रक्षाबंधन पर बहन की रक्षा का संकल्प लेता है और स्वतंत्रता दिवस देशवासियों को नए संकल्पों के साथ आजादी का उल्लास मनाने का मौका देता है। लेकिन आधी आबादी के सामने अभी सवाल बाकी हैं। पहला सवाल यह कि कैप्टन प्रेम माथुर को जब 1947 में कमर्शियल विमान उड़ाने का लाइसेंस मिला और वह ऐसी पहली भारतीय पायलट बन गईं तो फिर तब से अब तक इतना अरसा गुजर जाने के बाद भी बहनों और भाईयों के बीच गैरबराबरी बाकी कैसे रह गई? दूसरा सवाल, संविधान में बराबरी का अधिकार होने के बावजूद आजादी के 73 साल बाद भी महिलाएं समाज की परंपरागत बेड़ियों से पूरी तरह आजाद क्यों नहीं हो सकीं?
व्यावसायिक संस्थानों में रोजगार पाने वालों में महिलाओं का हिस्सा केवल 24 प्रतिशत है, उनमें से सिर्फ 19 फीसदी महिलाएं ही उच्च पदों तक पहुंच पाती हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 27 फीसदी है। इसके पीछे घरों में लड़कियों की शिक्षा पर लड़कों की तुलना में कम ध्यान देना और परंपरागत सोच प्रमुख कारक हैं। सबसे बड़ा प्रश्न आज भी महिला सुरक्षा का है। तमाम कानूनों के बावजूद महिला अपराध नियंत्रित नहीं हो रहे। निर्भया जैसे जघन्य कांड के बाद ऐसे अपराधों में कड़ी सजा के प्रावधान जोड़े गए। लेकिन समाज का नजरिया नहीं बदला। आम तौर पर शांत प्रदेशों में शुमार उत्तराखंड के कोटद्वार शहर में कुछ दिन पहले दस साल की लड़की पास की दुकान से सामान लेने दिन के उजाले में निकली और घर नहीं लौटी। तीसरे दिन उसका क्षत-विक्षत शव बरामद किया गया। जांच में यह दो दरिंदों की करतूत निकली।
हर रोज अखबारों में महिलाओं से संबंधित लैंगिक असमानता, दहेज मृत्यु, छेड़छाड़, बलात्कार, घरेलू हिंसा, मानसिक और शारीरिक शोषण आदि घटनाएं पढ़ने को मिल जाती हैं। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि महिलाएं आखिर सुरक्षित कहां हैं? आज भी कई लड़कियां ऐसी हैं जो पढ़ने की अधूरी इच्छा के साथ ससुराल भेज दी जाती हैं। घर, चूल्हा-चौका उसका पीछा नहीं छोड़ पा रहा। महिलाएं घर और बाहर दोनों जगह गैरबराबरी से लड़ रही हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, पारंपरिक रूप से विद्यमान लैंगिक असमानता ने महिलाओं को घरेलू कार्यों तक ही सीमित रखा है। लिंग संबंधी असमानता के आधारभूत कारण हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे से जुड़े हैं। हमारे समाज के औपचारिक अनौपचारिक मानकों, प्रथाओं एवं अंधविश्वासों पर आधारित है। जिस कारण बालिकाओं एवं महिलाओं के प्रति भेदभाव आज भी जारी है। हाल ही में प्रकाशित एक और रिपोर्ट ‘विश्व में महिलाओं की प्रगति’ के अनुसार, लगभग आधी से अधिक विवाहित महिलाओं (25-54 वर्ष) की वैश्विक श्रम बल में भागीदारी नहीं है। जबकि इसी आयु वर्ग के लगभग सभी विवाहित पुरुष वैश्विक श्रम बल का हिस्सा हैं। भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों ने राजनीतिक अधिकारों के परिपेक्ष्य में महिलाओं के लिए समान भागीदारी तथा सहभागिता सुनिश्चित की गई है। कई राज्यों ने पंचायती राज में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान लागू किया है, जिससे राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन पंचायतों में चुनकर आयीं ज्यादातर महिलाओं के अधिकारों पर उनके परिवारों के पुरुषों का पहरा है। इसका कारण अशिक्षा और जागरूकता का अभाव है।
हमारे परिवारों में लड़की की तुलना में लड़कों को अधिक महत्व दिया जाता है। धार्मिक आडम्बर इसका आधार है। जैसे- लड़का ही पिता के वंश को आगे बढ़ाता है, वही श्राद्ध व तपर्ण कर माता-पिता एवं पूर्वजों के लिए स्वर्ग के द्वारा खोलता है… आदि। ऐसे ही आडंबरों के कारण आज भी महिलाओं को दोयय दर्जे का माना जाता है। परिवार में महत्वपूर्ण फैसलों पर उनकी राय जानना भी उचित नहीं समझा जाता। इस प्रकार समाज का आधा हिस्सा समाज के लिए अपनी पूरी भागीदारी से वंचित हो जाता है।
सरकार द्वारा 1990 के दशक के बाद महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण की पहल की गई, जिससे ग्रामीण परिवेश में रह रही महिलाओं का पिछड़ापन, गरीबी और सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा को निपटाकर सतत विकास की प्रकिया में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का मानना है कि कई समूहों को उनके लिंग, जातीयता, आयु, यौन अभिविन्यास, अक्षमता या गरीबी के कारण विकास के दायरे से बाहर रखा गया है। इससे दुनिया भर में असमानता बढ़ी है।
ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद सरकारों ने महिला उत्थान के लिए कुछ नहीं किया। महिलाओं की आवाज सुनने के लिए देश और राज्यों में आयोग बने। महिला अपराधों से जुड़े कानून कड़े किए गए। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिए सख्त गाइडलाइन बनीं। दुर्भाग्य से नतीजे उतने अच्छे नहीं आए, जितनी अपेक्षा की गई थी। दरअसल समाज का नजरिया लड़कियों के प्रति भेदभावपूर्ण होने के कारण सारी व्यवस्था परिणामपरक नहीं हो पा रही। जब तक महिलाएं खुद नहीं जागेंगी, तब तक नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं आ पाएंगे। महिलाओं को खुद शिक्षा की अलख जगानी होगी। महिला शिक्षा और जागरूकता के बिना आधी आबादी के बराबरी के रास्ते मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे। खुद जागरूक होने के साथ ही समाज का नजरिया बदलने के लिए भी महिलाओं को ही पूरी ताकत के साथ जुटना होगा। इस स्वतंत्रता दिवस पर हम सब महिलाओं को प्रगति से रोकने वाली परंपरागत बाधाओं से आजादी का संकल्प लें और हर भाई कामना करे कि उसकी बहन इतनी मजबूत बने कि वह अपनी रक्षा खुद कर सके।